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ते म॑र्मृजत ददृ॒वांसो॒ अद्रिं॒ तदे॑षाम॒न्ये अ॒भितो॒ वि वो॑चन्। प॒श्वय॑न्त्रासो अ॒भि का॒रम॑र्चन्वि॒दन्त॒ ज्योति॑श्चकृ॒पन्त॑ धी॒भिः ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te marmṛjata dadṛvāṁso adriṁ tad eṣām anye abhito vi vocan | paśvayantrāso abhi kāram arcan vidanta jyotiś cakṛpanta dhībhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ते। म॒र्मृ॒ज॒त॒। द॒दृ॒ऽवांसः॑। अ॒द्रि॑म्। तत्। ए॒षा॒म्। अ॒न्ये। अ॒भितः॑। वि। वो॒च॒न्। प॒श्वऽय॑न्त्रासः। अ॒भि। का॒रम्। अ॒र्च॒न्। वि॒दन्त॑। ज्योतिः॑। च॒कृ॒पन्त॑। धी॒भिः॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:1» मन्त्र:14 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:14» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो हम लोगों के मनन करने और पालन करनेवाले (अद्रिम्) मेघ के (ददृवांसः) तोड़नेवाले किरणों के सदृश हम लोगों को (मर्मृजत) शुद्ध होकर शुद्ध करते हैं (एषाम्) इसके मध्य में (अन्ये) दूसरे लोग (तत्) इस कारण (अभितः) चारों ओर से सम्मुख (वि, वोचन्) उपदेश देते (पश्वयन्त्रासः) देखे हैं, यन्त्र जिन्होंने ऐसे होते हुए (कारम्) शिल्पकृत्य का (अभि, अर्चन्) सत्कार करते (धीभिः) बुद्धियों वा कर्मों से (ज्योतिः) प्रकाश को (विदन्त) जानने और सबों में (चकृपन्त) कृपालु होते हैं (ते) वे सब लोगों से सत्कार पाने योग्य होवें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो वेद, उपवेद, अङ्ग और उपाङ्गों के पार जाने और शिल्पविद्या के जाननेवाले विद्वान् लोग कृपा से सब को उत्तम प्रकार शिक्षा का उपदेश करके विद्यायुक्त करें, वे सब लोगों से सत्कार करने योग्य होवें ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! येऽस्माकं मनुष्या पितरोऽद्रिं ददृवांसः किरणा इवास्मान् मर्मृजतैषामन्ये तदभितो विवोचन् पश्वयन्त्रासः सन्तः कारमभ्यर्चन् धीभिर्ज्योतिर्विदन्त सर्वेषु चकृपन्त ते सर्वैः पूज्यास्स्युः ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) (मर्मृजत) शुद्धा भूत्वा शोधयन्ति (ददृवांसः) विदारकाः (अद्रिम्) मेघम् (तत्) तस्मात् (एषाम्) मध्ये (अन्ये) भिन्नाः (अभितः) सर्वतोऽभिमुखाः (वि) (वोचन्) उपदिशन्ति (पश्वयन्त्रासः) पश्वानि दृष्टानि यन्त्राणि यैस्ते (अभि) (कारम्) शिल्पकृत्यम् (अर्चन्) सत्कुर्वन्ति (विदन्त) जानन्ति (ज्योतिः) प्रकाशम् (चकृपन्त) कृपालवो भवन्ति (धीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये वेदोपवेदाङ्गोपाङ्गपारगाश्शिल्पविद्याविदो विद्वांसः कृपया सर्वान् सुशिक्षामुपदिश्य विदुषः संपादयेयुस्ते सर्वैः सत्कर्त्तव्याः स्युः ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे वेद, उपवेद, अंग, उपांगाना जाणून शिल्पविद्या जाणणारे विद्वान लोक कृपावंत बनून सर्वांना उत्तम प्रकारे शिक्षणाचा उपदेश करून विद्यायुक्त करतात ते सत्कार करण्यायोग्य असतात ॥ १४ ॥